Bharat Ki Gatha: Sarswati Nadi Aur Nachiketa Ki Kahaniभारत की गाथा: सरस्वती नदी और नचिकेता की कहानी
"क्या आपने यह खबर पदी है, ग्रैंडपा?" देवनाथ की ओर दौड़ कर आते हुए उत्तेजित स्वर में संदीप ने पूछा। देवनाथ छड़ी लेकर घूमने के लिए नदी किनारे की ओर जा रहे थे। सूर्यास्त होने ही वाला था और मोह लेने वाली मन्द-मन्द हवा चल रही थी। उस छोटे-से शहर पर एक खुशनुमा शाम उतरने लगी थी।
देवनाथ रुक गये। उन्होंने सारी जिन्दगी इतिहास पढ़ाया था और भारत के अतीत पर बहुत खोज की थी। उनके पास बहुत-से योग्य छात्र थे लेकिन उनमें से कोई भी अपने विषय में संदीप के समान जिज्ञासु नहीं था। वह अभी स्कूल में ही पढ़ता था लेकिन आसमान तले की हर चीज जानने का उसे शौक था। और भला क्यों नहीं, उसके ग्रैंडपा इतने अदभुत जो थे। एक प्रोफेसर, शिक्षाविद और विश्वविद्यालय के कुलपति के रूप में सेवा-निवृत हो जाने के बाद देवनाथ के पास अपने पोते की ज्ञान-पिपासा शान्त करने के लिए काफी समय था। यदि उन्हें बालक के प्रश्न का उत्तर नहीं मालूम होता तो वे स्वयं सीखना चाहते।
चुनिन्दे ग्रंथों से समृद्ध प्रोफेसर के पुस्तकालय की दोनों मिलकर छानबीन करते। देवनाथ फ्रांसिसी चिंतक बॉलतेयर को बार-बार उद्धृत करते"जितना अधिक मैं पढ़ता है, उतना ही अधिक मनन करता हूँ। जितना ही अधिक मैं जानता हूँ, उतना ही मुझे यह लगता है कि मैं कुछ नहीं जानता।"
संदीप के मन में देवनाथ के प्रति गहरी श्रद्धा थी। उसे ग्रैंडपा के रूप में एक मित्र, दार्शनिक और मार्गदर्शक मिल गया था।
"हाँ, मेरे बच्चे, मेरे लिए कौन-सा आश्चर्य लाये हो?" देवनाथ ने पूछा।
"ग्रैंडपा, हमलोगों के प्राचीन साहित्य में एक महान नदी सरस्वती का वर्णन आता है। लेकिन यह कहीं दिखाई नहीं देती। एक बार एक प्रसिद्ध वक्ता ने हमें यहाँ तक बताया कि ऐसी नदी का कभी कोई अस्तित्व था ही नहीं। लेकिन इस पत्रिका में एक रिपोर्ट छपी है कि लैंडस्टेट नामक उपग्रह ने उस नदी के मार्ग का फोटो लिया है। चौदह कि.मी. चौडी यह नदी हिमालय से बहती थी।"
"बिल्कुल ठीक मेरे बच्चे! इतना ही नहीं, कुछ और भी है। कुछ ही वर्षों पहले एक जाने-माने पुरातत्व वैज्ञानिक पॉल हेनरी फ्रैंक फर्त ने इस महान नदी पर पूरी तरह से शोध किया है। उसके विचार में यह नदी चार हजार वर्ष से भी पहले, शायद बहुत लम्बे समय तक सूखा पड़ने के कारण सूख गई; एक और नदी दृस्द्र्वती का भी यही हाल हुआ।"
'क्या यह कुछ अजीब सा नहीं लगता जब लोग यह कहें कि इनका अस्तित्व कभी था ही नहीं।"
"अजीब सा नहीं। वास्तव में हमलोगों को भारत के अतीत के बारे में बहुत कम जानकारी है। सैकड़ों वर्षो तक हम तामसिक जीवन जीते रहे। हमलोगों ने खोज, गवेषणा या अनुसंधान में पहल नहीं की। परन्तु पश्चिम के अध्ययनशील विद्वानों ने हमारे लिए बहुत कुछ किया।
उन्होंने साँची जैसे स्मारक और अजन्ता तथा एलोरा जैसे कला के खजानों को ढूंढ निकाला। उन्होंने हमारी बहुत प्राचीन महत्वपूर्ण पांडुलिपियों की खोज की और उनमें संकलित झान के बारे में हमें बताया। लेकिन साथ ही उन्होंने कुछ ऐसे सिद्धान्त प्रस्तुत किये जो असत्य निकले। उदाहरण के लिए, उन्होंने यह कहा कि आर्यों ने बहुत पहले भारत पर आक्रमण किया था और यहाँ के मूल निवासी द्रविड़ों से युद्ध किया था।
हमारे अपने इतिहासकारों और अध्यापकों ने इसकी सत्यता की जांच किये बिना उस सिद्धान्त को स्वीकार कर लिया। हमारी इतिहास की पुस्तकों में यह सिद्धान्त पढ़ाया गया।
लेकिन आज कोई भी गंभीर विद्वान इस बात को देख सकता है कि इस सिद्धांत के समर्थन में प्रमाण का लेख मात्र भी नहीं। दूसरी ओर, इससे भारत को बहुत क्षति पहुंची। हमने अपने आप को दो भिन्न जातियों के रूप में देखा।" ग्रैंडपा ने संदीप को समझाते हुए बताया।
"ग्रैंडपा, जब नदी सूख गई तो इसके तट पर रहनेवाले लोगों की क्या दशा हुई होगी?"
ये दोनों अब नदी के किनारे-किनारे टहलने लगे। देवनाथ का उत्साह बढ़ गया। उन्होंने कहा "उन्हें संकट का सामना करना पड़ा होगा। किन्तु यह संकट अचानक, एक दम नहीं आया होगा। नये चरागाह की तलाश में वे थोड़े-थोड़े, करके कहीं और चले गये होंगे। यह एक विशाल देश था और स्थान का अभाव नहीं था। लेकिन सरस्वती नदी के किनारे जो संस्कृति और साहित्य उन्होंने विकसित किया, ये उनकी महानतम विभूति, हमारे देश के महानतम गौरव बन गये। वे वेद कहे जाते हैं।"
"क्या उन ग्रंथों को वे जहाँ-जहाँ गये, अपने साथ ले गये?"
देवनाथ मुस्कुराये और बोले,-"हाँ, वे वेदों को साथ लेकर जाते रहे- पर केवल अपनी स्मृति में। यद्यपि उन्हें लिखने की कला मालूम थी, फिर भी वे वेदों को कंठस्थ करने की विद्या का अभ्यास करते थे। और ध्यान रहे, चार-चार वेद-ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्व वेद।
"अविश्वसनीय सन्दीप ने विस्मय के साथ कहा।
"अविश्वसनीय हम लोगों के लिए; लेकिन उनकी जीवन-शैली हमलोगों से विल्कुल भिन्न थी। मेरा तात्पर्य यह नहीं है कि उस लुप्त सभ्यता का हर व्यक्ति वेदों को कंठाग्र कर सकता था। लेकिन जो ऐसा करते थे, वे ऋषि कहलाते थे यानी द्रष्टा और मुनि। वे समाज के शिक्षक थे। उन्हें धारणा यानी मन की एकाग्रता की शक्तियों की सिद्धि प्राप्त थी। वे वेद के स्तोत्रों का पाठ एक विशेष लय के साथ करते थे जिससे उन्हें न केवल शब्दों को याद रखने में बल्कि उनके शुद्ध उच्चारण और विराम में भी सहायता मिलती थी।"
"लेकिन वे इतना कष्ट क्यों करते थे, ग्रैंडपा?"
"मैं जानता था, तुम यह प्रश्न पूछोगे। संदीप जब हम किसी चीज के लिए कष्ट उठाते हैं तो हम किसी आनन्द या लाभ के लिए ऐसा करते हैं। लेकिन कृषियों ने न तो आनन्द के लिए और न लाभ के लिए ऐसा किया। वे जिज्ञासु थे, सत्य के अन्वेषको वे जीवन की पहेलियों और आधारभूत समस्याओं का समाधान खोज रहे थे। हमारे जीवन का उद्देश्य क्या है? मृत्यु के पश्चात हमारा क्या होता है? हमें दुख क्यों होता है? आदि आदि। उनका विश्वास था कि वेदों में इन सभी प्रश्नों के उत्तर हैं।
"लेकिन वेदों को किसने लिखा?"
"यह एक रहस्य है। जैसे हम पुस्तकें, रिपोर्ट या पत्र लिखते हैं, उस अर्थ में उन्हें किसी ने नहीं लिखा। ऋषियों ने उन्हें सुना। इसीलिए इन्हें श्रुति भी कहते हैं-यानी जो ज्ञान सुना गया हो। उनका विश्वास था कि चेतना के ऐसे उच्चतर लोक हैं जहाँ से प्रेरित शब्दों के रूप में मानव चेतना में सत्य उतर सकते हैं।
"काश वे सत्य मुझमें भी उतर पाते!'सन्दीप ने नकली गंभीरता के स्वर में कहा।
"ये भी हमारी तरह मनुष्य थे, संदीप! यदि उनके साथ ऐसा हो सकता था तो तुम्हारे साथ भी हो सकता है। नचिकेता तुम से बहुत छोटा था जब उसने मृत्यु के बाद के जीवन के रहस्य को ढूंढ निकाला।"
"नचिकेता! यह नाम परिचित-सा लगता है।"
"बस, इतना ही! क्या तुम्हें यह नहीं मालूम कि बहुत शताब्दियों से उसका नाम क्यों लिया जाता है?"
"शायद नहीं।"
"वेदों के बाद कई ग्रंथ आये जिन्हें उपनिषद कहते हैं। एक ऐसी ही उपनिषद् में, जिसे कठोपनिषद् कहते हैं, नचिकेता का वर्णन है। उसके पिता मुनि वाजवा यज्ञ कर रहे थे। यज्ञ की पूर्णाहुति पर वे ब्राह्मणों को अपनी वस्तुएं दान दक्षिणा में दे रहे थे।
बालक नचिकेता ने यह सब ध्यान से देखा। फिर, अपने पिता के पास आकर बोला,"आपने मुझे किसे दान में दिया?"
उसने इस प्रश्न को कई बार दुहराया जिससे उसके पिता नाराज हो गये और क्रोध से बोले "यम को।"
नचिकेता चुपचाप यम के पास पहुँच गया, जो और कोई नहीं बल्कि मृत्यु के देवता हैं। परन्तु यम अपने निवास पर नहीं थे। नचिकेता तीन दिनों तक भूखा प्यासा उनके द्वार पर प्रतीक्षा करता रहा।
बालक की सचाई से प्रभावित होकर तीन दिनों तक धैर्यपूर्वक प्रतीक्षा करने के बदले यम ने उसे तीन वरदान दिये।
"मेरे पिता मेरी अनुपस्थिति में चिंतित होंगे। उन्हें शान्ति प्रदान कीजिये।" नचिकेता ने पहला वरदान माँगा।
"तथास्तु।" यम ने कहा।
"मुझे स्वर्ग का ज्ञान बताइए।" नचिकेता ने दूसरा वरदान माँगा।
"तथास्तु।" यम ने कहा।
"मुझे मृत्यु का रहस्य बताइए। मनुष्य के देहान्त के पश्चात् आत्मा कहाँ जाती है? कृपया इसका ज्ञान दीजिए।" नचिकेता ने तीसरा वरदान माँगा।
यम को एक छोटे बालक से ऐसे प्रश्न की उम्मीद नहीं थी। "वत्स! मृत्यु और आत्मा का ज्ञान तुम्हारे लिए नहीं है। तुम कुछ ऐसी चीज मांगो जो तुम्हें प्रसन्नता दे सके-दीर्घ जीवन, समृद्धि और शक्तिा"
"हे करुणा निधान! इनमें से कुछ भी सच्चा सुख नहीं दे सकता। हमें वही ज्ञान दीजिए जिसके लिए मैंने प्रार्थना की है। केवल यही ज्ञान मुझे बचा सकता है।" नचिकेता ने आग्रह किया।
अन्त में, यम ने नचिकेता को आत्मा का ज्ञान प्रदान किया जो मृत्यु से परे है और जन्म-जन्म का शाश्वत यात्री है। नचिकेता प्रबुद्ध होकर घर लौटा और एक महान ऋषि के रूप में प्रख्यात हुआ।
"यम का निवास स्थान मालूम करना क्या उनके लिए संभव था?" संदीप ने विनोद के स्वर में पूछा।
"मेरे बच्चे। ऐसी कहानियों को केवल उनके कथानक की रूपरेखाओं से नहीं समझना चाहिए। इनके पीछे सच्चा भाव छिपा रहता है। ऋषि वाजश्रवा मात्र क्रोध करनेवाला या बेटे को शाप देनेवाला नहीं था। यदि इतना ही होता तो उपनिषद में इस प्रसंग के लिए कोई स्थान न होता। मैं समझता हूँ कि उसने अपने बेटे को एक दायित्व सौंपा। उसने मृत्यु के रहस्य पर ध्यान करने का कार्यभार दिया।
नचिकेता ने उस समस्या पर तीन दिनों तक चित्त एकाग्र किया होगा। इस अवधि के अन्त में उसे यह रहस्योदघाटन हुआ होगा कि आत्मा अमर है।" देवनाथ ने कथा का विश्लेषण करते हुए समझाया।
"आश्चर्यजनक!" सन्दीप प्रसन्नचित्त दिखाई पड़ा।