Mahabharat Ki Prasidh Kahani: महावीर कर्ण की जन्म कथा महाभारत
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Surya Putra Mahavir Karna Ki Janam Katha Hindi |
Mahabharat Ki Prasidh Kahani: Mahavir Karnaमहाभारत की प्रसिद्ध कहानी: महावीर कर्ण
यदुवंशी यादव राजा शूरसेन की बेटी पृथा बहुत ही सुन्दर और गुणवान थी। उसने बचपन में महर्षि दुर्वासा की सेवा करके वर पाया था वर में उसे एक वंशीकरण मंत्र मिल गया था।
इस मंत्र में यह शक्ति थी कि पृथा जिस भी देवता को चाहेगी उसे अपने बस कर लेगी। इस मंत्र की शक्ति से उसे अपने पास बुला लेगी।
दुर्वासा जी से पृथा, जो बाद में (कुन्ती) नाम से प्रसिद्ध हुई, इस मंत्र को पाकर बहुत प्रसन्न हुई।
एक दिन! सुबह के समय जैसे ही सूर्य उदय हो रहा था। पृथा को उसका यह दृश्य बहुत ही अच्छा लगा, लाल सुर्ख गोल चेहरा देखकर इतनी मुग्ध हो गई कि खुशी से नाचते हुये सूर्य की ओर एकटक देखती रही।
फिर पृथा ने सोचा कि क्यों न मैं वशीकरण मंत्र की शक्ति से सूर्य को अपने पास बुला लूं। इससे मंत्र की शक्ति का भी पता चल जायेगा और मैं सूर्य को भी अपने पास बुलाकर उसे दिल भर... ।
बस फिर क्या था! पृथा ने उसी समय वशीकरण मंत्र का पाठ किया। सूर्यदेव अपना देव रूप धारण कर पृथ्वी पर उतरे और पृथा के पास आकर बोले “सुन्दरी! तुमने हमें प्यार से याद किया, तुम जीत गई हो, हम हारकर तुम्हारे वश में होकर चले आये हैं।"
"यह तो मेरा सौभाग्य है कि आप जैसे महान देवता और विश्व के सर्वाधिक शक्तिमान प्रभु से भेंट हुई। आओ देवराज...आओ, तुम मुझे बहुत अच्छे लगते हो।"
सूर्य देवता, जो उस समय शीतल पूर्ण मानव के रूप में थे, पृथा के प्यार के आगे बेबस से हो गये। बस उसके प्यार की डोरी में बंधकर वहीं पर लेट गये। प्यार ही प्यार का भूखा होता है।
दोनों ने अपने प्यार में अंधे होकर अपने शरीर एक दूसरे की बांहों में भरकर जीवन का आनन्द लिया।
किन्तु जैसे ही उनकी भावनायें शांत हुईं तो पृथा को अपनी भूल का अहसास हुआ कि वह तो समाज की नजरों में अभी तक कुंवारी है, यदि वह मां बनेगी तो लोग उसे क्या कहेंगे?
“सूर्यदेव आप तो मेरे पति हो गये किन्तु यह बात इस संसार को तो नहीं पता और न ही इस पर कोई विश्वास करेगा...फिर मेरा क्या होगा?"
"देखो पृथा, तुम्हारे पेट में जन्म लेने वाला पुत्र मेरी भाति ही महावीर होगा। उसके कानों में मेरे महाशक्ति वाले दो कुण्डल होंगे। वह महाविजेता होगा। उसे कोई भी हरा नहीं पायेगा, क्योंकि उसके शरीर में सूर्य शक्ति होगी।"
“किन्तु भगवान, मुझे अब लोग कुंवारी मां कहेंगे, कलंकनी कहेंगे, फिर मैं उन्हें क्या उत्तर दूंगी?"
“मेरे यह कानों के कुण्डल तुम उस बच्चे के कानों में डालकर उसे किसी भी नदी में डाल देना। मैं उसकी स्वयं रक्षा करूंगा। तुम कुंवारी भी रहोगी और हमारा बेटा भी बचा रहेगा।” इतना कहकर सूर्यदेव वहां से लुप्त हो गये।
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कुछ समय पश्चात् जैसे ही पृथा के पेट से बेटे ने जन्म लिया तो कुन्ती (पृथा) ने उसके कानों में सूर्य कुण्डल डाल दिये। फिर अपनी एक दासी की सहायता से बक्से में बन्द करके उसे नदी में बहा दिया।
वह सन्दूक अश्व नदी में बहता हुआ, यमुना नदी में पहुंचा, फिर यमुना नदी से गंगा जी में चला गया। वहां से सूत राज्य में पहुंचा।
एक स्थान पर धृतराष्ट्र के परम मित्र अधीरथ अपनी पत्नी के साथ गंगा किनारे बैठे थे कि उनकी नजर इस विचित्र सन्दूक पर पड़ी जो गंगाजी में बहता चला आ रहा था।
राजा अधीरथ ने उस सन्दूक को बाहर निकाला और उसे खोलकर देखा तो उसमें जो बालक था उसके चेहरे पर तप का एक ऐसा प्रकाश था जिसके सामने बड़े-बड़े वीरों की नजरें झुक जाती।
दोनों पति-पत्नी ऐसे तेजस्वी बालक को पाकर बहुत खुश हुये। उन्होंने उस बच्चे को अपने घर ले जाकर उसका पालन-पोषण आरम्भ कर दिया। ब्राह्मणों को बुलाकर उसका नामकर्ण संस्कार किया गया तो सब ने एक मत होकर उसका नाम कर्ण रख दिया।
जैसे ही कर्ण बड़ा हुआ तो पिता अधीरथ ने उसे शस्त्र विद्या सिखाने के लिये द्रोणाचार्य, कृपाचार्य व परशुराम के पास भेजा । सब गुरुओं से शस्त्र विद्या सीखकर ही तो वह महावीर कर्ण बना। सूर्य शक्ति तो पहले से ही उसके अन्दर थी, फिर उसे द्रोणाचार्य, कृपाचार्य, परशुराम जैसे महागुरु मिल गये तो वही शक्ति कई गुना बढ़ गई।
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थोड़े समय के पश्चात् पृथा 'कुन्ती' की शादी की तैयारियां आरम्भ हो गईं। राजा कुन्ती भोज ने उसका स्वयंवर रचा जिसमें सारे देशों के राजाओं-महाराजाओं को निमन्त्रण दिये गये।
उसी स्वयंवर में देव तुल्य पांडु भी आये हुये थे। कुन्ती बारी-बारी से सब राजाओं के पास से होती हुई पांडू राजा के पास जाकर रुकी और फिर प्यार से उनकी ओर देखते हुये उनके गले में वर-माला डाल दी।
सारे राजाओं ने आश्चर्य से पांडू राजा की ओर देखा, उनको यह समझ में नहीं आ रहा था कि कुन्ती ने इस राजा में कौन-सी ऐसी विशेषता देखी कि इतने राजाओं को छोड़कर उसी के गले में वर माला डाली।
इसे संयोग ही कहा जायेगा।
पांडू राजा अपनी पत्नी को लेकर हस्तिनापुर पहुंचे तो उन सबका भव्य स्वागत किया गया। अपने नये जीवन में पांडू बहुत खुश थे। भीष्म जी जैसे महान वीर भाई के साये में सब भाई नई-नई बातें सीख रहे थे।
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