राजा शान्तनु का मन इस संसार से ही विरक्त हो चुका था…अपनी पत्नी और सन्तान के दुःख ने उन्हें जैसे पागल ही कर दिया था। उनके जीवन में कोई खुशी नहीं रही थी…कोई आशा नहीं थी। बस हर समय बैठे अपनी पत्नी गंगे और आठों पुत्रों के बारे में सोचा करते थे। सब कुछ ही तो लुट गया था। सब चला गया था। अब तो उसकी यादें ही बाकी रह गई थीं। गंगा से उन्हें कितना प्यार हो गया था! अब तो यह जीवन ही सूना हो गया है।
इतने में राजा ने देखा कि एक युवक अपने बाणों से गंगाजल को हजारों फुट ऊंचा उठा रहा है। उसके बाणों में इतनी महान शक्ति देख राजा शान्तनु स्वयं ही हैरान थे। ऐसी महान शक्ति तो बड़े-बड़े वीरों में भी नहीं होती…किन्तु यह युवक… । राजा शान्तनु आश्चर्य से उस युवक की ओर देखते हुये पूछने लगे “हे वीर युवक! तुम कौन हो?”
इससे पहले कि वह युवक कुछ कहता…उसी समय पवित्र गंगा स्त्री का रूप धारण करके, उस युवक का हाथ पकड़कर खड़ी हो गई और हंसते हुये राजा की ओर देखते हुये बोली-“क्यों राजन, आपने पहचाना हमें?”
“हे गंगे! भला मैं तुम्हें कैसे भूल सकता हूं…तुम मेरे ही शरीर का एक अंग हो। तुम्हारे बिना तो राजा शान्तनु अधूरा है। जब से तुम हमारे जीवन से गयी…हमारा तो सब कुछ चला गया प्रिया।”
“हे मानव श्रेष्ठ ! मैं तुम्हारे दुःख को भली-भांति जानती हूं. इसीलिये तो इस बालक को स्वयं तुम्हारे पास लेकर आई हूं।
यह हमारा आठवां बच्चा है…इसका नाम मैंने ‘देवव्रत’ रखा है।
इसने दुर्वासा जी से छः अंगों सहित वेदों को असुर गुरु शुक्राचार्य व बृहस्पति से सभी प्रकार की विद्याओं व शास्त्रों को तथा परशुराम जी से सारी शस्त्र विद्याओं को सीखकर निपुणता ग्रहण कर ली है।
यह इतना बड़ा महावीर बन चुका है कि बड़े से बड़ा वीर भी इसके सामने नहीं ठहर सकेगा।”
“प्रिया गंगे क्या… मैं…।”
“अब मैं वही मां गंगे हूं। अब मुझे भूल जाओ। तुम्हारे दुःख देखकर ही मैं इसे लेकर आई हूं…यह तुम्हारे और मेरे प्यार की अमर निशानी है।”
“गंगे…”
गंगे वहां से जा चुकी थी। उसी समय राजा शान्तनु ने आगे बढ़कर अपने बेटे को छाती से लगाकर प्यार किया। उस बेटे में राजा शान्तनु को गंगा की तस्वीर नजर आ रही थी। यही देवव्रत…। महाभारत का नायक भीष्म पितामह बना।
✥✥✥
एक बार फिर राजा शान्तनु शिकार खेलते हुये यमुना तट पर पहुंच गये। वहां पर फिर एक सुन्दर कन्या खड़ी अपने शरीर को हवा में झुलाती हुई नृत्य कर रही थी।
शान्तनु का चंचल मन उस सुन्दरी को देखकर व्याकुल हो उठा। और उनके सारे शरीर से चिंगारियां सी निकलने लगीं।
ठण्डी आह भरते हुए राजा शान्तनु उस सुन्दर कन्या के पास गया…और फिर उसकी ओर प्यार भरी दृष्टि से देखते हुए पूछने लगा…
“हे देव सुन्दरी…तुम कौन हो?” ‘मेरा नाम सत्यवती है…मैं केवटराज दाशराज की पुत्री हूं…और आप?”
“मैं इस देश का राजा शान्तनु हूं…सत्य बात तो यह है कि तुम्हें देखते ही मेरा मन चंचल हो उठा है। मेरी हार्दिक इच्छा है कि तुम मेरी रानी बन जाओ। मेरे सूने महल आप जैसी सुन्दरी की प्रतीक्षा कर रहे हैं।”
“राजन ! मुझे खुशी है कि आप मुझे पसन्द करते हो-किन्तु यह बात तो आप जानते ही हैं कि मेरी शादी का निर्णय मेरे पिता राजा केवटराज दाशराज ही करेंगे। इसलिये आपको उन से ही आज्ञा लेनी होगी।”
“ठीक है, मैं कल ही उनकी सेवा में हाजिर होऊंगा।” यह कहते हुये राजा वहां से चला गया।
सत्यवती अपने होने वाले पति को जाते हुए देखती ही रह गई।
✥✥✥
दूसरे दिन सुबह ही राजा शान्तनु अपना रथ लेकर केवटराज के पास पहुंच गया और उनके सामने हाथ जोड़कर प्रार्थना की कि आप मेरी शादी अपनी बेटी सत्यवती से कर दीजिये।
“राजा शान्तनु, हम आपको अच्छी तरह जानते हैं। हमें यह भी पता है कि इससे पूर्व भी अपकी एक सन्तान है।”
“जी हां-है।” “राजन ! हम आपसे अपनी पुत्री की शादी एक शर्त पर करने के लिये तैयार हैं।” “कौन-सी शर्त है महाराज ?”
“यही कि आपके राज्य की राज गद्दी का वारिस केवल हमारी बेटी के पेट से पैदा होने वाला लड़का ही होगा। बोलो मन्जूर है हमारी यह शर्त ?”
राजा शांतनु ऐसी शर्त सुनते ही शांत हो गये। उनके चेहरे का रंग पीला पड़ गया। उनकी आंखों के सामने अपने बेटे देवव्रत की शक्ल घूमने लगी। शान्तनु उस समय कुछ भी न बोले और चुपचाप घर वापस आ गये। राजा की हालत देखकर ऐसा लगता था-जैसे वे बहुत दिनों से बीमार हों। रंग पीला पड़ गया था, चेहरा उदास, होठों पर पपड़ियां जमी हुई।
जब देवव्रत ने अपने पिता की यह हालत देखी तो वह एकदम तड़प कर बोला”पिताजी! आपको क्या हुआ ?” “बेटा, यह मत पूछो कि मुझे क्या हुआ। जो हुआ वही अपना भाग्य था-उसे भूलने में ही लाभ होगा।”
“नहीं पिताजी-मैं आपका बेटा हूं-मां ने मुझे यही शिक्षा देकर भेजा है कि आपके दुःख-सुख का ख्याल रखू-क्या आप मुझे भी अपने दुःख का कारण नहीं बतायेंगे?”
“बेटे देव ! हम और सब कुछ सहन कर सकते हैं किन्तु तुम्हारा अधिकार किसी दूसरे को दे देने वाली बात तो हमारी कल्पना में भी नहीं आ सकती।”
“पिताजी, आप जो कुछ कहना चाहते हो एकदम साफ-साफ कहो।”
“बेटे….हम केवटराज की कन्या से विवाह करना चाहते हैं-किन्तु उस राजा ने हमारे सामने एक ऐसी शर्त रख दी जिसे हम मन्जूर नहीं कर सकते थे।”
“कैसी शर्त ?”
“यही कि हमारे राज्य की राजगद्दी का वारिस देवव्रत नहीं बल्कि उनकी बेटी का बेटा होगा-अन्यथा यह शादी नहीं होगी।”
“पिताजी! यह तो बहुत छोटी-सी बात है।” “तुम्हारे लिये छोटी है बेटे-इस दुनिया के लिये नहीं।”
“दुनिया तो हम बनाते हैं पिताजी। हम राजा हैं। हमें अपने फैसले करने का पूरा अधिकार है। अब आप यह बात मुझ पर छोड़ दीजिये कि मैं क्या करने जा रहा हूं।”
यह कहकर देवव्रत वहां से निकल गया। “बेटे देवव्रत! रुक जाओ-रुक जाओ।” देवव्रत ने पिता की एक भी बात न सुनी। वह वहां से सीधा केवटराज के पास गया और उनसे हाथ जोड़कर प्रार्थना करने लगा।
“देखो महाराज! मैं राजा शान्तनु का बेटा हूं और आपके पास यह वचन देने आया हूं कि यदि आप अपनी पुत्री की शादी मेरे पिता से कर देंगे तो राजगद्दी का मालिक केवल वही राजकुमार होगा जिसे आपकी बेटी जन्म देगी-मैं अपने आपको राजसिंहासन से अलग करता हूं।”
उस युवक की यह प्रतिज्ञा सुनकर केवटराज दाशराज बड़े खुश हुए। उन्होंने उसी समय अपनी बेटी को रथ में बैठाकर देवव्रत के साथ ही भेज दिया।
जैसे ही देवव्रत सत्यवती को लेकर महलों में आया तो राज शान्तनु उसे देखकर हैरान रह गये थे।
“पिताजी, मैंने आपकी इच्छा पूर्ण करने के लिये अपना सब कुछ त्याग दिया है-और मां को साथ ही ले आया हूं।”
“बेटे-तुमने यह क्या किया? इस राजगद्दी पर तो तुम्हारा ही अधिकार था-यह अन्याय होगा।”
“पिताजी! अपनी खुशी से त्याग करना अन्याय नहीं होता! आप तो मुझे आशीर्वाद दीजिये कि मैंने अपने कर्तव्य का पालन किया है।”
“बेटे…मैं तुम्हें यही आशीर्वाद देता हूं कि तुम जब तक भी इस संसार में जीना चाहोगे तब तक ही जीवित रहोगे-तुम केवल अपनी इच्छा से मरोगे।
इतिहास में तुम भीष्म पितामह के रूप में जाने जाओगे-तुम्हारा यह त्याग ही तुम्हें अमर कर देगा।”
यह कहते हुये राजा शान्तनु ने अपने बेटे को सीने से लगा लिया। दोनों की आंखों से आंसू निकल रहे थे। सत्यवती भी मूर्तिवत् देवव्रत की ओर बड़े प्यार से देख रही थी।
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