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Kahani Ruskin Bond Ki: दादी का अचार [ रस्किन बांड]

Kahani Ruskin Bond Ki काअंश:

वहां चारों तरफ पेड़ ही पेड़ थे और जब हम दादी को कोई जवाब न देते, तो यह पता लगाना मुश्किल हो जाता कि हम किस पेड़ पर बैठे हैं। कभी-कभी होता यह कि जिस पेड़ पर हम बैटे होते, ‘क्रेजी’ उसके नीचे आकर भौंकने लगता और हमारा भेद खुल जाता था…। 

दादी जब कभी वनीला या चाकलेट वाली मिठाई बनातीं, मुझसे कहतीं थोड़ी माली के बेटे मोहन को भी दे आओ।

मोहन के लिए तंदूरी बतख या चिकन-करी ले जाने की कोई तुक नहीं थी, क्‍योंकि माली के घर में कोई मांस-मछली नहीं खाता था। 

मगर मोहन को मिठाई अच्छी लगती थी-खासकर गुलाब जामुन, रसगुल्ले, जलेबी, जिनमें ख़ूब दूध और चीनी रहती थी, और फिर दादी के हाथ से बनी अंग्रेजी मिठाई तो वह बड़े चाव से खाता था।

अकसर हम कटहल के पेड़ को शाखाओं पर जा बैठते और मिठाई या पिपरमिंट या लसलसी-चिपचिपी टॉफी के चटखारे लेते रहते। कटहल हम खा नहीं सकते थे।

हां, उसकी तरकारी या सब्जी बनती या अचार डलता, तो हम शौक से खाते थे। मगर कटहल के पेड़ पर चढ़ने में बड़ा मजा आता था। कुछ बड़े अधभुत जीव भी उस पेड़ पर रहते थे-गिलहरियां, फल खाने वाले चमगादड़ और हरे सुग्गों का जोड़ा। 

गिलहरियां हमसे हिल-मिल गयी थीं और जल्दी ही हमारे हाथों से चीजें लेकर खाने लगी थीं। उन्हें भी दादी की चाकलेट वाली मिठाई बहुत भाती थी। एक नन्‍ही गिलहरी तो मेरी जेबों में घुसकर यह खोजबीन करती कि कहीं मैंने कोई चीज छिपा कर तो नहीं राखी है।

मोहन और मैं, दोनों बगीचे के लगभग हर पेड़ पर चढ़ जाते थे, और यदि

दादी हमें ढूंढ़ने निकलती, तो पहले आगे वाले बरामदे में से और फिर घर के बगल वाले रसोई-भंडार से और अंत में घर की दूसरी तरफ वाले गुसलखाने की खिड़की से हमें पुकारतीं। 

वहां चारों तरफ पेड़ ही पेड़ थे और जब हम दादी को कोई जवाब न देते, तो यह पता लगाना मुश्किल हो जाता कि हम किस पेड़ पर बैठे हैं। कभी-कभी होता यह कि जिस पेड़ पर हम बैटे होते, ‘क्रेजी’ उसके नीचे आकर भौंकने लगता और हमारा भेद खुल जाता था।

जब पेड़ों से फल बटोरने का मौसम आता, तो यह काम मोहन को सौंपा जाता। आम और लीची गर्मियों में पक कर तैयार होते थे। उन दिनों मैं बोर्टिंग स्कूल में होता। सो, मैं फल बटोरने के काम में हाथ नहीं बंटा सकता था। पपीता जाड़ों में पकता था। मगर पपीते के पेड़ पर चढ़ा नहीं जा सकता, क्योंकि उसका तना पतला और लचीला होता है। 

पपीते के  पेड़ से फल तोड़ने के लिए हम लंबी लग्गी लगाकर फल गिराते हैं और धरती पर गिरने से पहले ही उसे लपक लेते हैं।

मोहन अचार वगैरह डालने में भी दादी की मदद करता था। दादी के अचारों की बडी धूम थी। तेल में तैयार किया गया आम का अचार देखकर तो हर किसी की लार टपकने लगती थो। नींबू का तीखा अचार भी लोग बहुत लुभाते थे। 

इसी तरह, शलजम, गाजर, फूलगाभी, मिर्ची और दूसरे फलों और सब्जियों के अचार डालने में भी दादी उतनी ही निपुण थीं। 

जलकुंभी से लेकर कटहल तक-मतलब यह कि किसी भी चीज के अचार डालने की कला में दादी माहिर थीं। 

केन काका को अचार अच्छा नहीं लगता था, इसलिए मैं दादी से हमेशा ढेर सारा अचार डालने का आग्रह करता था।

मीटी चटनी और सॉस वगैरह मुझे ज्यादा पसद थे, मगर मैं अचार भी शौक से खाता था, यहां तक कि मिर्च-मसाले वाले तीखी अचार भी मुझे अच्छे लगते थे।

एक बार जाड़े के मौसम में, जब दादी के पास पैसों की थोड़ी कमी हुई, तो मैने और मोहन ने घर-घर जाकर उनके अचार बेचे।

हालांकि दादी हर किस्म के लोगों और पालतू जीव-जंतुओं को खिलाती-पिलाती थीं, मगर वह कोई धनी स्त्री नहीं थीं। मकान तो दादा जी उनके लिए जरूर छोड़ गये थे, मगर बैंक में रुपया ज्यादा नहीं था। 

आम की फसल से हर साल उन्हें ख़ासी आमदनी हो जाती थी और रेलवे से थोड़ी पेंशन भी

मिलती थी (दादाजी इस सदी के शुरू में पहले-पहल देहरादून तक रेलवे लाइन लाने में मदद करने वाले अग्रणी लोगों में थे)। 

मगर इसके अलावा दादी की आमदनी का और कोई साधन नहीं था। अब जब मैं कभी इस बारे में सोचता हूं, तो देखता हूं कि उन दिनों का भोजन निराला क्‍यों लगता था-बस, एक-आध चीज रहती थी उसमें, और उसके साथ कोई मिष्ठान्न होता था। 

यह दादी की पाककला का ही कमाल था कि साधारण-सा भोजन भी दावत का मजा देता था।

दादी के अचार ले जाकर बेचने पें मुझे कोई संकोच नहीं था। बल्कि इसमें |

तो मजा ही था। मोहन और मैं अचार की बोतलें-शीशियां टोकरियों में भर कर घर से निकलते और घर-धर जाकर उन्हें बेचा करते थे। 

सड़क के उस पार रहने वाले मेजर क्लार्क हमारें पहले ग्राहक थे। मेजर क्लार्क के बाल लाल-लाल से थे और आंखें चमकीली नीली, और वह हमेशा प्रसन्‍नचित्त दिखाई देते थे।

“उसमें क्‍या है, रस्टी ?” उन्होंने पूछा।

“जी, अचार 

“अचार ! तुम खुद डालते हो ?”

“जी, नहीं। मेंरी दादी डालती हैं। हम बेचने आये हैं। इन्हें बेचकर हम बड़े दिन (क्रिस्मस) के लिए ‘टर्की’ खरीदेंगे।”

“मिसिज बांड के अचार, अह्य ! अच्छा है, पहले मेरा ही घर पड़ता है, क्योंकि मैं जानता हूं तुम्हारी टोकरी आनन-फानन में खाली हो जायेगी। बेटे, तुम्हारी दादी से अच्छा अचार कोई नहीं डाल सकता । यह बात मैं पहले भी कहता था, और आज फिर कहता हूं। 

इस दुनिया में, जहां बढ़िया और लजीज भोजन बनाने वालों की वैसे ही बेहद कमी है, तुम्हारी दादी तो समझो ऊपरवाले का वरदान है। मेरी पत्नी बाजार गयी है, इसलिए थोड़ा तसल्ली से बातचीत कर सकता हूं, समझे… ! 

क्या-क्या है इस वक्‍त तुम्हारे पास ? जरूर ही मिर्ची का अचार भी होगा ! तुम्हारी दादी जानती हैं, मिर्ची का अचार मुझे अच्छा लगता है। 

तुम्हारी टोकरी में अगर मिर्ची का आचार ना हुआ, तो मुझे बहुत खराब लगेगा।”

वासतव में, टोकरी में लाल मिर्ची के अचार की तीन शीशियां थीं। मेजर क्लार्क ने तीनों को तीनों खरीद ली।

वहां से चल कर हम मिस केलनर के घर गये। मिस केलनर मिर्च-मसाले वाली चीजें कतई पसंद नहीं करती थी। इसलिए उसके हाथ अचार बेचने की बात करना ही व्यर्थ था। मगर मिस कंलनर ने एक शीशी सिरकेवाला अदरक खरीद लिया। 

फिर उसने मुझे एक छोटी-सी प्रार्थना-पुस्तक दी। जब कभी मैं मिस केलनर से मिलने जाता था, वह मुझे प्रार्थना-पुस्तक अवस्य देती थी और यह पुस्तक हमेशा वैसी ही होती थी।

आगे सड़क पर डाक्टर दत्त रहते थे, जो अस्पताल के इंचार्ज थे। उन्होंने नींबू के अचार की कई शीशियां ख़रीदीं। बोले कि नींबू का अचार उनके जिगर के लिए बड़ा फायदेमंद है। 

सड़क के सिरे पर मोटर-गेराज के मालिक मिस्टर हरि रहते थे, जो नयी कारें बेचते थे। उन्होंने सिरके वाले प्याज की दो शीशियां खरीदी और विनयपूर्वक कहा कि अगले महीने हम उन्हें दो शीशियां और दे जायें।

वापस घर पहुंचते-पहुंचते हमारी टोकरी अकसर खाली हो चुकी होती और दादी की हथेली पर हम जाकर बीस-तीस रुपए रख देते। उन दिनों इतने रुपयों में ‘टर्की’ आ जाती थी।

केन काका क्रिसमस तक वहां डटे रहे और ज्यादातर ‘टर्की’ उन्हीं के पेट में गयी।

“अब तो नौकरी ढूंढ ले तू” दादी ने एक दिन केन काका से कहा ।

“देहरादून में नोकरियां कहां रखी हैं !” केन काका झींकते हुए बोले।

“क्या कहता है ? तूने कभी कोई नौकरी ढूंढी ही नहीं ! तू क्या हमेशा  यहीं पड़ा रहेगा ? 

तेरी बहन एमिली लखनऊ में स्कूल की हेडमिस्ट्रेस है। उसके पास चला जा। उसने पहले भी कहा था कि वह तुझे अपनी “डॉरमिटरी’ (स्कूल में बच्चों के सोने का बड़ा हाल) का कामकाज देखने की नौकरो दे सकती है।”

“छि: छि: !” केन काका बोले, “ईमानदारी को बात तो वह है आंटी कि तुम खुद भी नहीं चाहोंगी कि मैं डॉरमिटरी जैसे जगह पर चालीस-पचास बावले बच्चों के साथ सिर-खपाई करूं।’”

“बावले क्या होता है ” मैंने पूछा।

“चुप रह !” केन काका बोल पड़े।

दादी बोलीं, “बावले का अथ है सनकी।”

“इतने सारे शब्दों का अर्थ ‘सनकी होता है “” मैंने शिकायत भरे स्वर में कह्म, “इससे अच्छा सीधे हम ‘सनकी’ हो क्यों नहीं कह देते। 

हमारे पास एक ‘सनक्री” क्रेजी है, ओर केन काका भी सनकी हैं।”

केन काका ने मेरा कान उमेठा। दादी बोलीं, ‘तेर केन काका सनकी नहीं हैं। ख़बरदार, जो कभी ऐसी बात मुह से निकाली ! हां, थोड़े आलसी जरूर हैं।!

“और खब्ती भी “‘ मैंने कहा, “सुनते हैं, वे खब्ती भी हैं।”

“कौन कहता है, में खब्ती हूं!” केन काका क्रोधित होकर बोले।

”मिस लेस्ली कहती है !” मैंने झुठमृठ उसका नाम ले दिया। में जानता था कि केन काका मिस लेस्ली पर मुग्ध हैं, जो देहरादून के फैशनेवल बाजार में ब्यूटी पार्लर चलाती थीं।

”तेरी बात पर विश्वाश नहीं होता !” केन काका बोले, “फिर भी, कब मिली मिस लेस्ली तुझसे ?”

“पिछले हफ्ते हमने उसे पुदीने की चटनी की शीशी बेची थी। मैंने मिस लेस्ली से कहा कि केन काका को पुदीने की चटनी अच्छी लगती है। पर वह कहने लगी-यह चटनी तो मैंने मिस्टर हाउफ्टन के लिए खरीदी है, जो मुझे कल – सिनेमा दिखाने ले जा रहे हैं।”

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